Samajik Vidambhana
समाजिक विडंबना ऐसी की आज के समय में धन ने लोगों को इस कदर बदल दिया है कि उनके लिए पैसे समाज, संस्कार, सभ्यता, अनुशासन, धर्म, जाति और माता-पिता से भी बढ़कर हो गए हैं। आज जिन व्यक्तियों को एक स्त्री, एक बेटी, एक बहू और लक्ष्मी का स्वरूप मानकर उनका सम्मान और आदर किया जाता है, उन्हीं सम्मानित होने वाली बहूओं में अब वो संस्कार, बेटी जैसा अनुशासन, सामाजिक मर्यादाएं और अपनी आजादी पर इस तरह का पर्दा डाल लिया है कि जितने कम कपड़े पहनें उतनी ही हमारी मर्ज़ी। मतलब यह कि ऐसी आजादी जो उनके चरित्र को चिन्हित करती है, वे उसे आजादी भरी जिंदगी कहती हैं। जो गृह प्रवेश से पहले माता-पिता का दर्जा रखने वाले सास और ससुर को घर से बाहर करने की शर्त लगाकर गृह प्रवेश कर रही हैं।
वे माता-पिता जो सिर्फ नए जमाने की दौड़ में यह देखते हैं कि किस घर में संस्कार की कमी है, कौन अपने माता-पिता को बेच कर पैसे कमा रहा है, कौन सा ऐसा घर जो धर्म, संस्कृति, अनुशासन जैसी पुरानी सोच वाली सोच नहीं रखता हो, ऐसे घर में अपनी बेटी का विवाह करवा रहे हैं। हालात इससे भी कहीं ज्यादा खराब हैं। इसके लिए बदलाव तो नहीं ला सकते लेकिन यदि छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देकर उनको सही करने और गलत का विरोध करके शायद कुछ अंकुश लगाया जाए तो सुधार हो सकता है।
इस विषय पर एक विचारणीय रूप में प्रस्तुत है:
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समाजिक विडंबना: धन का प्रभाव और संस्कृति का पतन
आज के समाज में पैसे का महत्व इतना बढ़ गया है कि कई बार लोग अपने मूल्यों और संस्कारों को भूल जाते हैं। आर्थिक समृद्धि ने न केवल हमारे सामाजिक ढांचे को बदला है, बल्कि हमारे संस्कारों और मूल्यों को भी प्रभावित किया है। ऐसे में यह विचारणीय है कि क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं?
पारिवारिक मूल्यों का ह्रास
माता-पिता का आदर: आधुनिकता की दौड़ में आजकल के युवा अपने माता-पिता को बोझ मानने लगे हैं। जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को संस्कार और शिक्षा दी, वही माता-पिता वृद्धावस्था में उपेक्षित हो जाते हैं।
संस्कार और सभ्यता: आजकल के परिवारों में संस्कार और सभ्यता का अभाव दिखने लगा है। जहां पहले घर के बड़े बुजुर्गों का सम्मान और उनकी बातों का मान रखा जाता था, वहीं आज की पीढ़ी इसे पुरानी सोच मानकर नजरअंदाज कर देती है।
महिलाओं की स्थिति और स्वतंत्रता
आधुनिकता की आड़ में: महिलाओं को समाज में सम्मानित स्थान दिया गया है, लेकिन आधुनिकता की आड़ में वे अपनी मर्यादाएं भूलती जा रही हैं। कम कपड़े पहनना और उसे स्वतंत्रता का नाम देना कहीं न कहीं हमारी सांस्कृतिक पहचान को चोट पहुंचाता है।
परिवार और जिम्मेदारियां: विवाह के बाद सास-ससुर को घर से बाहर करने जैसी शर्तें लगाने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यह न केवल परिवार की एकता को तोड़ता है, बल्कि समाज में गलत संदेश भी प्रसारित करता है।
समाधान की दिशा
संस्कारों की पुनर्स्थापना: छोटे-छोटे कदम उठाकर हम अपने समाज में सुधार ला सकते हैं। बच्चों को प्रारंभ से ही अच्छे संस्कार और मूल्यों की शिक्षा देनी चाहिए। परिवार में बड़ों का सम्मान और उनकी देखभाल करना हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए।
सही-गलत की पहचान: समाज में सही और गलत की पहचान कर, गलत का विरोध करना आवश्यक है। इससे हम अपने समाज को नैतिकता और अनुशासन की ओर वापस ले जा सकते हैं।
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निष्कर्ष
समाज में पैसों का महत्व होना स्वाभाविक है, लेकिन यह हमारे संस्कार, सभ्यता और मूल्यों से ऊपर नहीं होना चाहिए। हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संजोकर रखते हुए, आधुनिकता की दौड़ में भी अपने मूल्यों को नहीं भूलना चाहिए। इसी में हमारे समाज का सच्चा विकास निहित है।
पाटीदार शादी परिवार
राम पाटीदार
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